शिक्षा और चेतना के आभाव के कारण अपने पुरखों और क्रांतिकारियों के इतिहास जान पाना या इतिहास लिखना असंभव होता है। यही कारण है कि वंचित जातियों के नायकों पर शोध जरूरी हैं। जैसे जैसे शोध होंगे वैसे वैसे ही नए तथ्य और गुमनामी के अंधेरे में खोए नायक उद्घाटित होंगे। आज एक ऐसी ही सख्शियत अजयी धोबी की जयंती (अनुमानित) है जो पराक्रमी, बहादुर, कुशल, पहलवान, धोबिया पछाड़ दांव के सृजनकर्ता के रूप में सुविख्यात है। जिस पर न के बराबर ही लिखा गया है। उनके बारे में जो कुछ भी लिखा हुआ मिलता है या पता लगता है वह सब वीर लोरिक पर लिखे गए साहित्य में ही मिलता है। पहलवान अजयी और वीर लोरिक का गुरु शिष्य संबंध एवं मित्रता आज भी मिशाल की तरह है। वीर लोरिक का नाम हम सबने सुना ही होगा! वीर लोरिक उत्तर प्रदेश उत्तर प्रदेश की अहीर (यादव समुदाय) जाति का एक दिव्य चरित्र है। लोरिक की कथा लोरिकायन, जिसे अहीर जाति सहित अन्य जातियों का 'रामायण' का दर्जा दिया जाता है (डॉ. अर्जुन दास केशरी जी के अनुसार)। एस एम पांडेय जी ने इसे भारत के अहीर कृषक वर्ग का 'राष्ट्रीय महाकाव्य' कहा है, इस महाकाव्य में कई छोटे-छोटे राज्यों स्त्रीधन, पशुधन तथा शक्ति प्रदर्शन आदि का वर्णन है। मूलतः यह महाकाव्य वीर लोरिक के जीवन लोरिक-चंदा या मंजरी की प्रेमकथा पर केन्द्रित है। वीर लोरिक को ऐतिहासिक महानायक व अहीरों के महान पराक्रमी पुरखा के रूप में देखा जाता है। इसी महाकाव्य का एक महत्वपूर्ण चरित्र है वीर लोरिक का गुरु पहलवान अजयी धोबी। अजयी धोबी का जन्म (अनुमानतः ग्यारहवीं सदी में) भरतपुर (वर्तमान में बलिया जनपद) परगना बिहियापुर डंड़ार स्थित गउरा या गौरा गांव में पिंजला धोबी के घर हुआ था। इनके काल निर्धारण को लेकर काफी विवाद है, कुछ लोग ईसा पूर्व का तो कुछ मध्य युग का मानते हैं। अजयी धोबी एक कुशल योद्धा थे। कुश्ती में तो उनका कोई सानी नहीं था। न केवल वे अपितु उनकी पत्नी बिजवा भी एक कुशल पहलवान थीं, जाहिर सी बात है वह बहुत गुणग्राही रही होंगी तभी तो कुश्ती के दांवपेंच अपने पति अजयी से सीखी होंगी क्योंकि उस समय में महिलाओं के लिए कुश्ती लड़ना ही मुमकिन नहीं था तो अखाड़े में पुरुषों के आधिपत्य वाले खेल के दांवपेंच सीखने को कौन कहे। एक बार जब अजयी पहलवान कहीं बाहर थे और लोरिक को जरूरत पड़ी तो अजयी की पत्नी बिजवा ने भी दांव सिखाया और उसी दांव से लोरिक ने बण्ठवा को पराजित किया था। यही कारण था कि अजयी और उनकी पत्नी बिजवा को अहीर जाति के लोग खूब सम्मान देते थे। जब अजयी का जन्म हुआ था तो लोरिक के बड़े भाई संवरू (योगी का वेश धारण कर गए थे) के कहने पर अजयी के माता-पिता ने कपड़े धोने का काम बंद कर अपना काम दूसरों को दे दिया था और अजयी के लिए दूध का प्रबंध कर दिया गया था। इधर अजयी धीरे-धीरे बड़ा हुआ और अखाड़े में कुश्ती लड़ने जाने लगा। कुश्ती लड़ने और कसरत करने के कारण अजयी का शरीर काफी बलिष्ठ हो गया था। उस समय कुश्ती की प्रतियोगिता या दंगल का आयोजन खूब होता था, जो कि कई-कई दिनों (आज-कल एक-दो दिन का ही आयोजन होता है) तक चलता रहता था। एक बार अजयी सुहवल में कुश्ती की प्रतियोगिता में शामिल होने गए। वहां पर राजा बामरी के लड़कों झिंगुरी और भीमली का बोलबाला था उनके सामने कोई टिक नहीं पाता था, उन्हें अपनी पहलवानी पर बहुत घमंड भी था। अजयी का मुकाबला भी इन दोनों से हुआ। अजयी ने झिंगुरी और भीमली को धोबिया पछाड़ दांव से इतनी पटखनी दी कि लोगों ने दांतों तले उंगली दबा ली। बाद में इन दोनों को बुखार आ गया। अपने पुत्रों को हारा हुआ देखकर राजा बामरी को बहुत आघात पहुंचा तब उसने अपने पुत्रों को बहुत फटकारा भी। बामरी ने अपने मंत्रियों से अजयी के बारे में पता करना चाहा कि उसका नाम-गांव क्या है तो सबने कहा कि नहीं पता। एक मंत्री ने कहा कि हम तो कुश्ती देखने भी न गए थे कि वीर कैसा है और कौन है? इस पर राजा बामरी ने गउरा के सभी लड़ाकों को बुलवाया। जब अजयी ने अपने गांव का परिचय विस्तार से दिया और लोरिक व उसके बड़े भाई संवरू के बारे में बताया तो सबकी आंखें फटी रह गईं। इस घटना के बाद कुश्ती के मामले में अजयी की तूती बोलने लगी। इधर झिंगुरी और भीमली मन में खार खाए बैठे थे और अपने पराजय का बदला लेना चाहते थे। पुनः सुहवल में झिंगुरी और अजयी में मुकाबला हुआ तो अजयी ने झिंगुरी को बुरी तरह से हराया। झिंगुरी अपनी दोनों हार का बदला लेने के लिए अजयी के साथ छल किया और धोखा देकर अजयी का पैर फंसा दिया जिससे अजयी बुरी तरह से घायल हो गया। सभी पहलवान अखाड़ा छोड़कर चले गए अजयी वहीं अचेत पड़ा रहा। कुछ लोगों ने सुहवल के ही मक्खू धोबी से कहा कि यह तुम्हारी ही जाति का है, इसका यहां कोई नहीं है। तब मख्खू धोबी ने उसके मुंह पर पानी का छीटा मारा और उसके दांतों (अचेत होने के कारण दांत बैठ गए थे) को खोलकर मुंह में पानी डाला। फिर उन्हीं लोगों की सहायता से मचोला या खटिया पर लादकर अजयी को अपने घर लाया। मख्खू धोबी की पत्नी और बेटी बिजवा ने एक सप्ताह तक खूब सेवा की तब जाकर अजयी को होश आया। घी और आटा का हलवा खिलाया और सेवा की। सात माह की अनवरत सेवा के बाद ही अजयी ठीक हो सका। इधर मख्खू और उसकी पत्नी ने बेटी बिजवा का विवाह अजयी से करने का फैसला किया और गुप्त रूप से तैयारी शुरू कर दी। बिजवा की मां राजा बामरी के मंत्री के पास गई और छत्तीस जातियों की कुंवारी कन्याओं की दुर्दशा का वर्णन किया। वह इसी के बहाने अपनी बेटी की शादी करने की बात भी सूचित करना चाहती थी। इससे यह पता चलता है कि उस दौर में बिना राजा की अनुमति के आमजन अपनी कन्याओं का विवाह नहीं कर पाते थे। जब बात नहीं बनी तो पुनः पति-पत्नी दोनों राजा बामरी की की कचहरी में बेटी के विवाह की अनुमति लेने पहुंचे। जब राजा बामरी को पता चला कि मख्खू अपनी बेटी का विवाह अजयी पहलवान से करना चाहते हैं तो वह भड़क गया और मख्खू को डांटने लगा। तो मंत्री ने बताया कि अजयी इतने दिन से बीमार है, 7 माह से बिस्तर पर ही पड़ा रहा, अब वह किसी काम का नहीं रहा, उसकी वीरता ही खत्म हो गई होगी और वह नामर्द बन गया होगा। तब उसने चुपचाप शादी की अनुमति दे दी और बिना मण्डप, बिना कलश, बिना ब्राह्मण के वेदपाठ के ही शादी करने की शर्त लगा दी। मख्खू और उसकी पत्नी ने इसे विधि का विधान मान अपनी बेटी का विवाह अपने आंगन में अजयी धोबी से ही कर दिया। विवाह के दौरान जब राजा बामरी की बेटी ने अजयी को पीले कपड़े में देखा तो वह आवाक रह गई और मन ही मन बिजवा से जलने लगी। सोच रही थी कि बिजवा की किस्मत कितनी अच्छी है जो अजयी पहलवान (इतने अच्छे वर) से इसका विवाह हो रहा है। पीले कपड़ों में अजयी राजकुमार से कम नहीं लग रहा था और वह बिजवा की सेवा और देखभाल से पहले से भी ज्यादा हृष्ट-पुष्ट हो गया था। अजयी को उसके सास-ससुर कुछ न दे पाने के लिए बहुत परेशान थे तो अजयी ने कहा कि आप परेशान न हों पहले ही आप लोगों ने इतना कुछ किया है कि उसके आगे सब कुछ कम है। अजयी जब बिजवा को विदा करा रहा था तो छत्तीस जाति की लड़कियां भी बहुत खुश हो रही थीं, कहीं न कहीं उन्हें भी अपनी शादी की उम्मीद अवश्य जगी होगी। जब बिजवा को लेकर अजयी अपने गांव गउरा पहुंचा तो वहां पर उत्सव सा माहौल हो गया था। ... क्रमशः जारी विभिन्न स्रोतों से संकलित आभार सहित *डॉ. नरेन्द्र दिवाकर* मो.9839675923
आज पर्यावरण दिवस है, इस अवसर पर कुछ लोग पेड़ लगा रहे हैं तो सरकार भी करोड़ों पेड़ लगवा रही है। हम तो पेड़ लगाकर कोशिश कर ही रहे हैं पर हमारे पुरखों ने भी पर्यावरण के अनुकूल धुलाई (रेह मिट्टी से धुलाई) की अद्भुत और अकल्पनीय तकनीक और साबुन (रेह) खोजा लेकिन साजिशन उसे ज्ञान/महत्वपूर्ण खोज नहीं माना गया। उनकी यह खोज भी महत्वपूर्ण साबित हो सकती है बस उस पर थोड़ा शोध करने की आवश्यकता है कि वह वर्तमान दौर में पहने जाने वाले कपड़ों को धोने में कैसे सार्थक हो सकती है। वैसे यह रेह मिट्टी से ही प्राप्त होती है, इससे कपड़ा धुलने पर तालाब या नदी की तली में बैठ जाती है, जिसे निकालकर गाद/गिलावा के रूप में दीवारों पर लगाने व द्वार को ऊंचा करने के काम में लाते थे। इससे कोई प्रदूषण भी नहीं फैलता। यदि इसे परिमार्जित और परिष्कृत किया जा सके तो धुलाई रसायनों के कारण नदियों और झीलों में उठने वाले झाग (जो कि एक गंभीर समस्या है) से काफी हद तक निजात मिल सकती है। आज से 15-16 वर्ष पूर्व में भी यह प्रयोग में लाई जाती थी। मैने अपने शोध के दौरान भी मातपुर (मनौरी के पास) में लोगों को रेह से कपड़े धुलते हुए पाया था। आज तक तमाम तरह के धुलाई रसायन बाजार में आ चुके हैं जिनमें फॉस्फेट की मात्रा तय मानक से अधिक होती ही जिसके कारण तालाबों, झीलों, नदियों आदि जलस्रोतों में झाग की समस्या देखी जा सकती है। यह केवल नदियों आदि जलस्रोतों में धोबियों द्वारा धोए जाने वाले कपड़ों के कारण ही नहीं होता बल्कि बड़ी-बड़ी औद्योगिक लॉन्ड्री से निकलने वाले बहि:स्राव के कारण भी होता है पर उनको दोष न देकर केवल धोबियों को ही दोषी मानकर नदियों के किनारे पर कपड़ा धोने से रोक दिया जाता है। रेह का उपयोग केवल कपड़े धोने में ही नहीं बल्कि खाद्य तेलों को रिफाइन करने के अतिरिक्त चूड़ी उद्योग आदि में भी इस्तेमाल किए जाने के प्रमाण मिले हैं। रोम में धोबियों द्वारा इसी रेह से कपड़े धुलने की बड़ी बड़ी कार्यशालाओं का भी प्रमाण मिला है। इस तरह से हमारे पुरखों ने एक साबुन खोज जो शायद सर्वदा पर्यावरण के अनुकूल रहेगा। आज पर्यावरण दिवस है, इस अवसर पर हमारे दोनों बच्चों ने भी इलाहाबाद स्थित आवास पर गमले में 1-1 पेड़ लगाया। हालांकि अभी मई में ही भतीजी प्रतीक्षा और दोनों बेटे तेजस व श्रेयस ने गांव में 1-1 पेड़ लगाया था। हम लोगों ने घर में पड़ने वाली शादियों और जन्मदिन व स्मृति दिवस पर वृक्षारोपण की शुरुआत भतीजे प्रियांशू के पहले जन्मदिन (2008) से ही की थी। हमें वृक्षारोपण के साथ-साथ जंगलों को तबाह होने से भी बचाना चाहिए क्योंकि भारत का संविधान सभी को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय देने की गारंटी देता है, जिसकी सुरक्षा करना राज्य की जिम्मेदारी है। जल जंगल जमीन की सुरक्षा और संरक्षण करना सिर्फ आदिवासियों का ही काम नहीं है अपितु देश की समस्त आवाम का कर्तव्य है। सरकार को चाहिए कि प्रकृति प्रेमी आदिवासियों के हक-हुक़ूक़ की रक्षा करे। हमारी जिम्मेदारी यह है कि हमें जितना अपने पूर्वजों से मिला है अगर उससे अधिक नहीं तो कम से कम उतना अवश्य अपनी आने वाली पीढ़ियों को सौंप सकें। *नरेन्द्र दिवाकर* मो. 9839675023
*एक उम्दा साबुन... जिसकी खोज हमारे पुरखों ने की* धोबी जिस सूझबूझ से अपना काम करते थे, उनकी बौद्धिक संपदा का अधिकार वे किसी और पर जमाते ही नहीं थे। रेह जैसे उम्दा साबुन की खोज उन्होंने ही की। उनका सारा ज्ञान उन्होंने खुद ही पीढ़ी दर पीढ़ी की साधना और सतत प्रयोगों से जुटाया था। इस हेतु उन्होंने किसी कॉलेज में दाखिला पाने के लिए कभी कोई आंदोलन नहीं किया था। उनके कपड़े धोने के तरीके में आज की तरह बिजली नहीं लगती थी और न ही कोई खतरनाक रसायन युक्त कोई धुलाई सामग्री लगती थी। उनके कपड़े धोने से आज की तरह कोई जलस्रोत प्रदूषित नहीं होते थे और न ही जलस्रोतों में कभी झाग की समस्या आई थी। उन्हें कभी किसी तरह का तकनीकी प्रशिक्षण नहीं दिया गया था और न ही सरकार या किसी अन्य संस्थान से शोध व प्रशिक्षण कार्यक्रम हेतु अनुदान मांगा। आजकल की तरह महंगी व अत्याधुनिक मशीनों से भी बेहतर कपड़े धोने व पर्यावरण को संरक्षित करने के लिए किसी प्रकार का पुरस्कार नहीं मांगा। कपड़ों को धवल चांदनी सा चमकाने व जलस्रोतों को बचाए रखने के लिए कभी किसी के आदेश का इंतजार नहीं किया। पर्यावरण दिवस जैसा कोई आयोजन नहीं किया और न ही किसी प्रकार के प्रशस्ति पत्र की मांग की। इसके बदले में सरकार ने रेह उत्पन्न करने वाली जमीनों को खत्म करने के लिए भूमि सुधार निगम बनाए। रेह जैसी खोज करने वाले अधिकतर लोग शौक कर कौतूहल से काम करने वाले थे या फिर वे अपना काम निकालने के लिए विभिन्न प्रयोग आजमाते थे। लेकिन आज युग बदल रहा है। शोध जगत में केवल पेशेवर लोगों की ही जगह बची है। जो बिकाऊ है उस पर ही अनुसंधान करने हेतु सरकारी और आर्थिक इमदाद मिलती है। जो बिकाऊ नहीं है उसके अनुसंधान के लिए वैज्ञानिकों को आर्थिक मदद नहीं मिलती है। यही हाल *रेह (Fuller's Earth)* के साथ हुआ। उसे उपेक्षित किया गया जिसके कारण बिकाऊ नहीं समझा गया जबकि मुल्तानी मिट्टी आज बाजार में सौंदर्य प्रसाधन सामग्री के तौर पर बिक रही है। इसके जिम्मेदार काफी हद तक हम भी हैं, क्योंकि हमने शायद इसकी महत्ता को नहीं समझा और न ही इस पर अनुसंधान किया। रेह की खूबी और महत्ता से अनजान आम जनमानस ने रेह से कपड़ा धुलने वालों को आउटडेटेड घोषित कर दिया। तथाकथित उच्च जातियों ने उनके काम की महत्ता को बिना जाने उन्हें अछूत घोषित कर दिया। केवल इतना ही नहीं धुलाई की अत्याधुनिक व भारी-भरकम मशीनों को देख हतप्रभ होकर उनसे होने वाली हानियों से अनजान अपने आपको भविष्यवक्ता कहने वाले धोबियों को ही जलस्रोतों को प्रदूषित करने का जिम्मेदार ठहराना शुरू कर दिया। जब सबने किसी न किसी चीज के लिए दोषी माना तो उनके अपने कैसे पीछे रहते? उनके अपने समुदाय की पढ़ी लिखी आबादी, जिन्हें रेह की गुणवत्ता और अपने पुरखों द्वारा खोजी गई धुलाई सामग्री व धुलाई प्रक्रिया की महत्ता की जानकारी नहीं थी, ने उस कार्य को घृणित माना। तथाकथित उच्च जातियों ने उनके कार्य को सराहने व उन्हें सम्मान देने के बजाय अछूतों की श्रेणी में रखा, नतीजतन आज झाग वाली नदियां हमारे सामने हैं। *नरेन्द्र दिवाकर* मो. 9839675023
साथियों 🌾आज ही के दिन अर्थात 13 अप्रैल (1919)को #जलियांवाला_बाग_हत्याकांड में अमर शहीद दुलिया और नत्थू धोबी का योगदान🌾 वर्ष 2015 में स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर प्रधान मंत्री जी ने कहा था- “आज हम जो आजादी की सांस ले रहे हैं, उसके पीछे लाखों महापुरूषों का बलिदान है, त्याग और तपस्या की गाथा है। जवानी में फांसी के फंदे को चूमने वाले वीरों की याद आती है।” इसी आजादी को पाने के पीछे बहुत से ऐसे भी सूरमा रहे हैं जिनका नाम आज तक गुमनामी के अंधेरों में गायब है। उन्हें ऐसे अवसरों पर याद करना तो दूर पुस्तकों में भी उनकी कहीं चर्चा नहीं होती है, इसीलिए हमारा समाज अपने समाज के शहीद सपूतों का नाम तक नहीं जान पाया है। आजादी की वास्तविक कुर्बानी तो दलित जातियों के स्वतंत्रता सेनानियों की ही रही है। दलित साहित्यकारों की कलम अब इन गुमनाम दलित शहीदों का नाम जनमानस के सामने लाने का काम कर रही है। 1857 की क्रांति में भी खेतिहर मजदूर से लेकर मोची, धोबी, नाई यानि समाज का हर तबका शामिल था। उसमें शहर प्रशासन के खिलाफ डेरा डाला जाता था तो कई दिन तक चलता था। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर देश के आजाद होने तक की स्वाधीनता की हर लड़ाई में हमारे समाज के लोगों ने भी अपनी कुर्बानियाँ दी हैं। इसी जलियांवाला बाग हत्याकांड की 100वीं वर्षगांठ (13 अप्रैल, 2019) पर जलियांवाला बाग हत्याकांड आज फिर एक बार चर्चा में है। जब ब्रिटेन की प्रधानमंत्री टरीजा मे ने 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड को भारत में ब्रिटिशकालीन इतिहास पर एक शर्मनाक धब्बा करार दिया। इस अवसर पर टरीजा मे ने उस नरसंहार पर गहरा अफसोस जताते हुए कहा कि, '1919 का जलियांवाला बाग त्रासदी ब्रिटिश-भारतीय इतिहास के लिए शर्मनाक धब्बा है। जैसा कि महारानी एलिजाबेथ द्वितीय ने 1997 में जलियांवाला बाग जाने से पहले कहा था कि यह भारत के साथ हमारे बीते हुए इतिहास का दुखद उदाहरण है।' जलियांवाला बाग घटना की आज भी बड़े जोर-शोर से चर्चा की जाती है और प्रत्येक वर्ष इस घटना को याद किया जाता है। लेकिन सत्य तथ्य को दर्शाने से गैर-दलित बंगले झांकने लगते हैं या फिर चुप्पी साध कर रह जाते हैं। ये आज भी जानबूझ कर सच्चाई को सामने लाना नहीं चाहते। इसी घटना का यहाँ जिक्र करना चाहूँगा जिसके केंद्र में हमारे धोबी समाज के अमर शहीद रहे हैं। जलियांवाला बाग अमृतसर (पंजाब प्रांत) के स्वर्ण मंदिर के पास का एक छोटा सा बगीचा है जहाँ 13 अप्रैल, 1919 (बैसाखी के दिन) को रौलेट एक्ट का विरोध करने के लिए एक सभा हो रही थी। आजादी के दीवानों की इस सभा का आयोजन करने वाला महान क्रांतिकारी दलित योद्धा नत्थू धोबी था। उन्होंने इस सभा के आयोजन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इस सभा के आयोजक नत्थू धोबी का जन्म 1839 में अमृतसर शहर के जवाहर धोबी के घर में हुआ था। आजादी दिलाने के खातिर जलियाँवाला बाग में अंग्रेजों द्वारा चलाई गई अंधाधुंध गोलियों में स्वतंत्रता की बलिवेदी धोबी समाज के इस वीर सपूत ने अपने प्राणों की आहुति दे दी। शहीद होने के समय इनकी उम्र 80 वर्ष की थी। उस दिन उस सभा में भारी संख्या में जुझारू दलित कार्यकर्ता ही शामिल हुए थे। ब्रिगेडियर जनरल रेजीनॉल्ड डायर के नेतृत्व में अंग्रेजी फौज ने गोलियां चला के निहत्थे, शांत बूढ़ों, महिलाओं और बच्चों सहित सैकड़ों लोगों को मार डाला था और हज़ारों लोगों को घायल कर दिया था। इस सामूहिक हत्याकाण्ड में जो लोग शहीद हुए थे उनमें अधिकतर दलित और शोषित समाज के ही थे। इस बात का सबूत जनरल डायर के वे आंकड़े हैं जो यह दर्शाते हैं कि उस कांड में मारे गए 200 लोगों में से 185 दलित समाज के लोग थे। दुलिया धोबी का जन्म पीरू धोबी के घर पर अमृतसर में हुआ था। 13 अप्रैल 1919 को हो रही सभा में दुलिया भी मौजूद थे। क्रांतिकारी दुर्गादास जब सभा को संबोधित कर रहे थे उसी समय जनरल डायर पुलिस बल के साथ आया और बाग को चारों ओर से घेर लिया। सशस्त्र बलों को देखकर कुछ लोग किसी अनहोनी की आशंका से उठने लगे। दुलिया ने जब यह देखा तो उसे लगा कि सभा में व्यवधान न पड़े इसलिए वह जनता को बैठाने, प्रेरित करने और निर्भीकता से बैठे रहने के लिए मंच की ओर दौड़ कर आए और एक ऊँची जगह पर खड़े हो कर जनरल दायर को ललकरते हुए कहा कि हम तुम्हारी गोलियों से डरने वाले नहीं हैं हम मर मिटेंगे पर पीछे नहीं हटेंगे, आजादी को प्राप्त करने लिए हंसते हुए सीने पर गोली खाएँगे परंतु भारत माता कि गुलामी कि जंजीरें अवश्य तोड़ेंगे। इस नौजवान की इस तरह कि बातों को सुनकर जनरल डायर क्रोधित हो गया और उसने सिपाहियों को गोली चलाने का आदेश दे दिया। अपने लोगों पर गोलियां बरसाता देख दुलिया धोबी ने एक सैनिक की गन छीन ली थी, लेकिन तभी दूसरे सैनिक ने दुलिया के सीने में कई गोलियां दाग दी और अल्प आयु में धोबी समाज का यह जुझारू और बहादुर नौजवान अपने देश, माता-पिता सहित धोबी सामाज को भी देशभक्ति के लिए गौरवान्वित कर शहीद हो गया। इस घटना में धोबियों के योगदान का पता इसी से लगाया जा सकता है कि अकेले घूरेम गांव के ही 13 धोबी गिरफ्तार कर लिए गए थे। दिल को दहला देने वाले इस कांड में अंग्रेजी फौज की गोलियों के शिकार हुए दलितों में सभा संयोजक नत्थू धोबी, बुद्धराम चूहड़ा, मंगल मोची, दुलिया राम धोबी आदि थे। पर अब तक कोई ऐसा ग्रंथ नहीं लिखा गया जो जलियांवाला बाग में धोबियों के अमूल्य योगदान का वर्णन पूरी तरह से कर सके। यह भी विदित हो कि इसी दिन नत्थू धोबी और दुलिया धोबी के साथ-साथ बुधराम चूहड़ा, मंगल मोची आदि ने भी देश की रक्षा के लिए क़ुरबान हो गए। यदि इस घटना को आंकड़ों में देखें तो पाएँगे कि अमृतसर के डिप्टी कमिश्नर कार्यालय में मौजूद आंकड़े के अनुसार इस हत्याकांड में शहीद हुए 484 लोगों की सूची आज भी कार्यालय में लगी हुई है, जबकि जलियांवाला बाग में कुल 388 शहीदों की सूची है। ब्रिटिश राज के अभिलेख इस घटना में 200 लोगों के घायल होने और 379 लोगों के शहीद होने की बात स्वीकार करते हैं, जबकि अनाधिकारिक आंकड़ों के अनुसार इस गोलीकांड में एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए। मात्र आकड़ों का अलग-अलग होना किसी घटना की गंभीरता को कम नहीं कर सकता। ध्यान देने वाली बात यह है कि इस नरसंहार को बीते हुए 100 वर्ष हो चुके हैं पर इस नरसंहार के घाव आज भी हमारे दिलों में ताजा हैं। हम इस घटना को कैसे भूल सकते हैं? हम कैसे भूल सकते हैं उन निर्दोष जाबाजों को जिन्हें ब्रिटिश सरकार की एक सनक ने मौत के घाट उतार दिया था? हम यह कैसे यह भूल सकते हैं कि उस संहार में मरने वाले अधिकांश दलित परिवार से ही थे? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि बुधराम चूहड़ा, मंगल मोची आदि वीर देश की रक्षा के लिए क़ुरबान हो गए? हम कैसे भूल सकते हैं कि जलियांवाला बाग में हो रही सभा का नेतृत्व हमारे धोबी समुदाय के जाबांज शहीद दुलिया और नत्थू धोबी ने अंग्रेजों का डटकर मुक़ाबला किया था? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि धोबियों ने वहाँ पर हो रही सभा में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था? हम यह कैसे भूल सकते हैं कि अकेले घूरेम गांव के ही 13 धोबी गिरफ्तार कर लिए गए थे? हम कैसे भूल सकते हैं उस * खूनी कुएं* को जिसमें बाग में मौजूद लोगों ने अपनी जान बचाने के लिए छलांग लगानी शुरू कर दी, और देखते ही देखते वह कुआं भी लाशों से भर गया? हम कैसे भूल सकते हैं उस घटना को जिसकी ज्वाला शहीद ऊधम सिंह के सीने में धधक रही थी, जिसका प्रतिशोध उन्होंने 21 वर्ष बाद 13 मार्च 1940 केक्सटन हॉल में इस घटना के जिम्मेदार माइकल डायर को गोली मार कर लिया और कोर्ट के समक्ष अपना पक्ष रखते हुए कहा कि डायर को उन्होंने इसलिए मारा, क्योंकि वो इसी के लायक थे। वो हमारे देश के लोगों की भावना को कुचलना चाहते थे, इसलिए मैंने उनको कुचल दिया है। मैं 21 वर्षों से उनको मारने की कोशिश कर रहा था और आज मैंने अपना काम कर दिया है। मुझे मृत्यु का डर नहीं है, मैं अपने देश के लिए मर रहा हूँ। 31 जुलाई 1940 को शहीद ऊधम सिंह हँसते-हँसते फाँसी के फंदे पर चढ़ गए। ये “अग्नि की लौ” (शहीद होने वालों की याद में बना स्मारक) हमें इस घटना (इतिहास के सबसे बुरे नरसंहार) की याद दिलाता रहेगा क्योंकि हमारे समुदाय के रणबांकुरे भी देश में ब्रिटिश शासन के अत्याचार के विरोध में अपने प्राणों की आहुति देने से पीछे नहीं हटे। यह घटना हमें यह भी दर्शाती है कि धोबी समुदाय हमेशा से दूसरों पर शोषण और दमन के खिलाफ लड़ता रहा है और लोगों की रक्षा करता रहा है। साथ ही अत्याचार, अन्याय और उत्पीड़न के खिलाफ डटकर मुक़ाबला करता रहा है तथा सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए अपने प्राणों की आहुति देने से कभी पीछे नहीं हटा। आइए, हम सब मिलकर इस हत्याकांड में शहीद हुए वीरों को उनके 100वें शहीदी दिवस पर अपनी श्रद्धांजलि भेंट करें और यह प्राण लें कि हम अपने गौरवशाली इतिहास को अवश्य दर्ज करेंगे और अपने पुरखों के मार्गों का अनुसरण करते हुए पुनः शासक बनने की ओर अग्रसर होंगे। डॉ. आंबेडकर साहब ने कहा था कि जो समाज अपना इतिहास नहीं जानता वह कभी अपना इतिहास नहीं लिख सकता। अब तक अधिकतर पुस्तकों में दलितों और मजदूरों के आंदोलनों को बहुत अहमियत नहीं दी गई और न ही उन्हें इतिहास में दर्ज किया गया। कुछ दलित इतिहासकारों और साहित्यकारों ने दलितों और मजदूर जातियों के स्वतंत्रता की लड़ाई में योगदान का इतिहास तैयार करने कोशिश की है, जो कि बहुत ही सरहनीय कार्य है। किसी ने सही ही कहा है कि- हम इतिहास में दफन हैं और हमें दफनाने वालों का इतिहास पढ़ाया जा रहा है। इसलिए अब हमें स्वयं अपना इतिहास लिखना होगा और इसके लिए हमें पढ़ना होगा ताकि हम भी हर क्षेत्र में अपना वर्चस्व कायम कर सकें। किसी ने सच ही कहा है- शानदार था भूत, भविष्य भी महान है। अगर संभालें आप उसे जो वर्तमान है॥ नरेन्द्र दिवाकर मो. 9839675023
मैंने अक्सर देखा व सुना है कि जब भी हमारे समुदाय के लोग कहीं मिलते हैं तो शायद ही व्यवसाय (Bussiness) या उद्योग को लेकर कोई चर्चा आपस में करते हों। कारण यह है कि अधिकतर लोग सरकारी नौकरी वाले ही होते हैं इसलिए वेतन/प्रमोशन/ट्रांसफर/इंक्रीमेंट/डी. ए. आदि से जुड़े मुद्दों पर ही चर्चा करते हैं। (मेरे कहने का मतलब यह बिलकुल नहीं है कि ऐसा नहीं होना चाहिए कि नौकरी से जुड़े मुद्दों पर चर्चा ही न करें।) यदि उनके बीच कोई व्यवसाय या स्वरोजगार वाला व्यक्ति होता भी है तो उसके व्यवसाय से जुड़े मुद्दों को लेकर शायद ही कोई चर्चा होती हो। जबकि व्यवसायी वर्ग में ठीक इसके विपरीत होता है। हम व्यवसाय (Bussiness) को अछूत की ही तरह ही मानकर चलते हैं, ऐसा लगता है जैसे हमारा दूर-दूर तक इससे कोई संबंध ही नहीं है, पंजाबी/सिंधी/बनिया ही इसके लिए बने हैं। हम (समुदाय के) लोगों को चाहिए कि नौकरी से जुड़े मुद्दों के साथ-साथ व्यवसाय व उद्योग आदि पर भी चर्चा करें, सफल उद्योगों व उद्यमियों की (प्रेरणादायक कहानियां व घटनाओं की) भी चर्चा करें क्योंकि हमारे समुदाय की अधिकांश आबादी स्वरोजगार या छोटे-मोटे व्यवसाय, मजदूरी आदि में ही लगी हुई है इसलिए इन पर चर्चा होना बहुत ही जरूरी है जिससे समुदाय के लोगों में व्यवसाय/उद्योग को करने/अपनाने या बढ़ाने के प्रति सकारात्मक माहौल बनेगा। जब हमारे समुदाय के लोग भी व्यवसाय करेंगे तो गाहे-बगाहे घर में व्यवसाय की चर्चा चलेगी ही तो बच्चे भी इससे जुड़ी शब्दावलियों से परिचित होंगे तो परिवार में भी व्यवसाय का माहौल बनेगा। नौकर बनने की प्रवृत्ति में कमी और मालिक बनने की प्रवृत्ति में वृद्धि होगी। कोई बिजनेस शुरू होगा तो घर के हर सदस्य कुछ न कुछ करेंगे। कोई मार्केटिंग करेगा, कोई हिसाब-किताब करेगा, कोई बिजनेस के सिलसिले में विदेश जाएगा, कोई कम्प्यूटर पर काम करेगा तो कोई बैंक का काम करेगा आदि-आदि। यकीन मानिए जब बिजनेस में सब योगदान देंगे तो घाटे का सौदा कभी नहीं बनेगा। घर की महिलाएं व बच्चे भी काफी मददगार साबित हो सकते हैं। तब गांधी की हर हाथ काम वाली उक्ति और अम्बेडकर साहब की गांव छोड़ो, शहर जाओ, शहर छोड़ो विदेश जाओ और नौकरी मांगने वाले नहीं नौकरी देने वाली उक्ति चरितार्थ होगी। उदाहरणार्थ अगर बात लॉन्ड्री और ड्राइक्लीनिंग व्यवसाय की ही करें तो हमारे समुदाय के लोगों ने इसे जातीय पेशा, घृणित और अछूत या कम फायदे और अधिक मेहनत वाला पेशा मानकर छोड़ दिया है या छोड़ रहे हैं जबकि पंजाबी, सिंधी, बनिया, ब्राह्मण आदि लोग लाखों/करोड़ों खर्चकर बड़े-बड़े प्लांट लगाकर खूब पैसा कमा रहे हैं। अगर इसमें फायदा या मुनाफ़ा नहीं होता तो वे इसे कतई न अपनाते। इसका बाजार भी 2025 तक 15 बिलियन डॉलर (बिजनेस स्टैंडर्ड के अनुसार) प्रतिवर्ष होने का अनुमान है। हर वर्ष लॉन्ड्रेक्स एक्सपो का आयोजन होता है (इस बार 23-25 फरवरी 2022 तक नोएडा में हो रहा है) जिसमें अत्याधुनिक भारी-भरकम मशीनों की प्रदर्शनी और बिक्री के साथ-साथ दुनिया भर के लॉन्ड्री एन्ड ड्राइक्लीनिंग प्रोफेशनल्स एकत्र होकर इस क्षेत्र से जुड़ी कमियों और संभावनाओं पर चर्चा करते हैं पर शायद ही उसमें हमारे समुदाय के लोगों की भागीदारी होती हो क्योंकि हमारे समुदाय के अधिकांश पढ़े-लिखे लोग इस पेशे को घृणित या कमतर मानते हैं व्यवसाय या बिजनेस तो इसे कतई नहीं मानते व जाते भी नहीं हैं और जो लोग इस पेशे में पुश्तैनी रूप से लगें हैं उन्हें इसके बारे में पता नहीं होता, जाएंगे भी तो प्रदर्शनी तक ही सीमित रहेंगे क्योंकि सेमिनार में तो लॉन्ड्री प्रोफेशनल्स लोग अंग्रेजी भाषा में ही बात करते हैं। अभी हाल ही में 30 दिसंबर 2021 से 1 जनवरी 2022 तक वाराणसी में दलित इंडियन चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स एन्ड इंडस्ट्री(DICCI) की तरफ से प्रदर्शनी कम ट्रेडफेयर का आयोजन हुआ था जिसमें हमारे समुदाय के लोग कम ही गए होंगे यदि गए भी होंगे तो इसके बारे में अपना अनुभव लिखना उचित नहीं समझा होगा जिससे अन्य लोग भी जानें। हमारे समुदाय के अधिकांश बच्चे आज भी रटी-रटाई डिग्रियों और नौकरियों के पीछे न चाहते हुए भी भाग रहे हैं, क्योंकि घर-परिवार में बिजनेस का माहौल ही नहीं है। जबकि आज जमाना तकनीक और उद्यमों का भी है। तमाम सारे उद्यमों को शुरू करने, आगे बढ़ाने व इनमें बने रहने हेतु विशेष ट्रेनिंग कोर्सेज चल रहे हैं, ट्रेड फेयर भी आयोजित हो रहे हैं पर हम इनसे बहुत दूर हैं। हम बिजनेस से जुड़ी खबरों, पत्र-पत्रिकाओं और माहौल से भी दूर हैं और बच्चों को भी दूर रखते हैं इसलिए हमें व्यापार की दुनिया के दांवपेंच नहीं समझ आते। पर अब हमें बहानेबाजी (कौन सा बिजनेस करें, कैसे करें, पूंजी नहीं है, कौन सम्हालेगा? आदि-आदि) छोड़कर इसकी ओर रुख करना होगा, मेहनत करना होगा क्योंकि किसी ने सच ही कहा है कि जहां चाह, वहां राह। नौकरी वालों के पास जोखिम (Risk) लेने की क्षमता तो है कि वे बिजनेस शुरू कर सकते हैं पर वे बिजनेस शुरू करने की ज़हमत ही नहीं उठाते और बिजनेस को अपने ओहदे के प्रतिकूल भी मानते हैं जबकि हमें डॉक्टरों से सीख लेना चाहिए कि अधिकांश डॉक्टर्स सरकारी या निजी चिकित्सालयों में जॉब भी करते हैं और घर के ही डिग्रीधारी सदस्य को हॉस्पिटल चलाने में सहयोग भी करते हैं। यह भी ध्यान रखना होगा कि यदि हम नौकरी करते हैं तो हमारे बच्चों को भी नौकरी पाने की पूरी प्रक्रिया को फिर से करनी पड़ेगी तब भी जरूरी नहीं कि वह नौकरी पा ही जाए, लेकिन यदि हमारा कोई बिजनेस भी है तब हमारे बच्चे को यदि नौकरी न भी मिली तो 20-30 साल का चलाया हुआ बिजनेस मिलेगा जिसमें वह और लोगों को रोजगार भी दे सकता है तमाम उदाहरण आपके सामने हैं। इसलिए अब हमें बिजनेस की तरफ भी रुख करना/कराना होगा क्योंकि कोशिश करने वाले की कभी हार नहीं होती। यदि आज आप मेरा यह लेख (अन्य लेख भी) पढ़ रहे हैं और में जिस मुकाम पर हूं तो इसके पीछे मेरे छोटे भाई का बिजनेस करना (हमें यहां तक पहुंचाने में बहुत जोखिम उठाए हैं उसने) ही है कि मैं यहां तक की यात्रा कर पाया हूँ। *नरेन्द्र दिवाकर* मो. 9839675023